Sunday, May 5, 2024
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नागरिक व्यवस्था के लिए समान नागरिक कानून आवश्यक है

समान नागरिक कानून का सीधा आशय है कि सभी धर्मों के व्यक्तियों के लिए एक समान नागरिक कानून होना चाहिए। नागरिक समाज में समान नागरिक कानून अति आवश्यक है। इसका सरल शब्दों में आशय है कि आपराधिक मामलों( चोरी, डकैती, दुष्कर्म और हत्या) में सभी पर एक समान कानून लागू होता है वैसे ही नागरिक मामलों (विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, गोद लेना एवं संपत्ति का बंटवारा) आदि में सभी के लिए समान कानून होने चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने 1861 में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और 1882 में अपराध प्रक्रिया संहिता( सीआरपीसी) बनाकर सभी को समान बना दिया था। संविधान सभा में बहस( वाद – विवाद )के दौरान डॉ आंबेडकर ने समान नागरिक कानून का पुरजोर समर्थन किया, ताकि महिलाओं, अल्पसंख्यकों (राज्य की आबादी का 50% भाग) एवं दलितों( सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर उपेक्षित) को समानता का हक/ अधिकार प्राप्त हो। लोकतंत्र का सार तत्व समानता( धर्म, मूल वंश, लिंग और रंग के आधार पर विभेदीकरण का निषेध) है।

तत्कालीन परिस्थितियों की जटिलता व कुछ राजनीतिक दलों की कुटिल चातुर्य और वोट बैंक की राजनीति के कारण इसको अनुपयोगी बना दिया गया था। तत्कालीन संवाद से सार निष्कर्ष निकला कि इसको संविधान के भाग 4 में रखा जाए। भाग 4 की प्रकृति वाद योग्य नहीं है अर्थात यह सरकार की नैतिक इच्छा पर निर्भर करता है। लोकतंत्र का तात्विक आधार ही है की इच्छा शक्ति से नहीं बल्कि नैतिकता से पालन किया जा सकता है ।कोई भी नागरिक और व्यक्ति (वैदेशिक के लिए) अपने धर्म व समुदाय के कानूनों के प्रति छाया में शोषण (सामाजिक, शारीरिक/भौतिक एवं आर्थिक) नहीं हो सकता है ।वर्तमान में सरकार की उपादेयता व प्रासंगिकता इस मत में है कि विश्व के सभी विकसित और सभ्य देशों के उच्चीकृत समाजों की तरह अपने देश के नागरिक समाज में समान नागरिक कानून को क्रियान्वित करके प्रगतिशील समाज ,समतामूलक समाज एवं शोषण विहीन समाज का निर्माण किया जाए ।देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक कानून के पक्ष में सलाह दे चुका है। मोदी सरकार अपने संकल्प यात्रा को पूरित करने के क्रम में इसको भी पूरा करने में पूर्णतः संकल्पित है।

शाह बानो (1985) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रगतिशील व दूरगामी निर्णय दिया लेकिन स्वर्गीय राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम विमेन प्रोटक्शन एक्ट 1986 पारित करके इस निर्णय को शून्य व गतिहीन कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के इतिहासिक निर्णय में समान नागरिक कानून की दिशा में पीथिका तैयार किया है ।भारतीय संविधान के निर्माण काल /रचना काल के समय से ही समान नागरिक कानून का विषय संवेदनशील रहा है। संविधान सभा ने भी समान नागरिक कानून को लागू करने की उम्मीद जताई थी, तत्कालीन परिवेश को देखते हुए इसको अनुच्छेद44 में अनुबंधित किया गया, जिसको लागू करना सरकार का मार्गदर्शक नैतिक संकल्प शक्ति पर होता है ।

कांग्रेस ने अपने निजी /व्यक्तिगत लाभ के लिए हिंदुओं के निजी कानूनों को संहिताबद्ध किया लेकिन भारत में रह रहे अन्य समुदाय के निजी कानूनों को संहिताबद्ध नहीं किया था ।अन्य समुदायों के कानून अपने हितों का उन्नयन करने और सामाजिक समस्याएं पैदा करने के साथ ही महिलाओं के हितों पर भी कुठाराघात करते हैं ।समान नागरिक कानून के द्वारा व्यक्तिगत कानूनों में भेदभाव और असमानता को दूर किया जाना जरूरी है ,ताकि देश में सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जा सके।

सब एक समान नागरिक संहिता के तहत ही आचरण करें ,इससे देश में नागरिक सद्भाव और एकता का वातावरण बन सकता है। 21वें विधि आयोग के तर्कों को रेखांकित किया जाए तो एक प्रगतिशील विचार चिंतन का भाव दिखाई देता है। विभिन्न समुदायों के बीच फैले भेदभाव को दूर करना अति आवश्यक है। समान नागरिक संहिता में बुनियादी सुधारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जैसे कि सभी समुदायों में विवाह की आयु को 18 वर्ष करना चाहिए और संपत्ति में अविवाहित महिलाओं का हक होना चाहिए। समान नागरिक कानून की उपादेयता व प्रासंगिकता इस प्रयोजन में है कि सभी समुदायों के कानूनों में समानता के सार्वभौमिक सिद्धांतों को क्रियान्वित करना और वर्जनाओं और रूढ़ियों पर आधारित परंपरागत प्रथाओं को समाप्त करना अति आवश्यक है । इससे समाज में प्रगतिशील विचार, समतामूलक प्रत्यय , चिंतन व तार्किक व वैज्ञानिक विचार के द्वारा समानता आ जाए, जो लोकतंत्र के सार तत्व व वैचारिक आत्मा है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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