Thursday, May 9, 2024
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Homeभारत गौरववेदों में 'भारत' शब्द का उल्लेख कहाँ कहाँ हुआ है

वेदों में ‘भारत’ शब्द का उल्लेख कहाँ कहाँ हुआ है

(चारों वेदों में ढूंढ़ने पर ‘भारत’ शब्द कुल छः मन्त्रों में प्राप्त हुआ है।)

जब भी कोई विषय विशेष रुप से चर्चा में आता है। तब मैं उससे सम्बन्धित कोई भी शब्द या बात वेद में है क्या यह देखता हूँ। जैसे कि अभी हमारे देश का नाम भारत है या इण्डिया इसकी चर्चा जोरों पर है। इण्डिया जहाँ विदेशियों का दिया हुआ तथा संस्कृत और हिन्दी भाषा के बाहर का शब्द है, वहीं भारत शब्द मूल रुप से वैदिक शब्द है। यह शब्द वेद में भी मिलता है। इसका अर्थ भी बहुत अच्छा है। ‘भासृ दीप्तौ’ धातु से भारत शब्द बनता है अर्थात् प्रकाश या ज्ञान में रत रहने वाला ‘भारत’ कहलाता है। भारत शब्द हमारे संविधान में स्वीकृत शब्द है इसलिये ‘भारत’ इस नाम से किसी को भी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये। मैं भारत का नागरिक होने के नाते भारत के सभी सरकारी कार्यों में सभी सरकारी संस्थाओं में ‘भारत’ नाम किये जाने की वकालत करता हूँ। मैंने इस गौरव और स्वाभिमान के प्रतीक ‘भारत’ शब्द को चारों वेदों में ढूँढा़। फिर मुझे छः मन्त्रों में भारत शब्द मिला है। मैं ये छः मन्त्र भारतीयों को पहुँचाना चाहता हूँ।

वेदों में ‘भारत’ शब्द होने से इन मन्त्रों में कोई भारत का इतिहास या भारत की कोई गाथा नहीं गाई गई है। क्योंकि वेदों में कोई इतिहास नहीं होता। परन्तु हमारे भारतीय शब्दों की महिमा क्या होती है, हमारे शब्द कितने अर्थ पूर्ण और भाव पूर्ण होते है उसका अनुभव आपको होगा। इससे यह भी पता लगता है कि हमारे पर्वतों, नदियों, नगरों आदि के नाम भी वेदों से लिये गये हैं।

श्रेष्ठं यविष्ठ भारताग्ने द्युमन्तमा भर।
*वसो पुरुस्पृहं रयिम्॥*
– ऋग्वेद २/७/१
हे (वसो) सुखों में वास कराने और (भारत) सब विद्या विषयों को धारण करनेवाले (यविष्ठ) अतीव युवावस्था युक्त (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान विद्वान् ! आप (श्रेष्ठम्) अत्यन्त कल्याण करनेवाली (द्युमन्तम्) बहुत प्रकाशयुक्त (पुरुस्पृहम्) बहुतों को चाहने योग्य (रयिम्) लक्ष्मी को (आ, भर) अच्छे प्रकार धारण कीजिये।

-त्वं नो असि भारताग्ने वशाभिरुक्षभिः।
*अष्टापदीभिराहुतः॥
– ऋग्वेद २/७/५
हे (भारत) सब विषयों को धारण करनेवाले (अग्ने) विद्वान् ! जो (वशाभिः) मनोहर गौओं से वा (उक्षभिः) बैलों से वा (अष्टापदीभिः) जिनमें आठ सत्यासत्य के निर्णय करनेवाले चरण हैं। उन वाणियों से (आऽहुतः) बुलाये हुए आप (नः) हम लोगों के लिये सुख दिये हुए (असि) हैं।सो हम लोगों से सत्कार पाने योग्य हैं।

य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टवम्।* *विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्॥
– ऋग्वेद ३/५३/१२
पदार्थ -* हे मनुष्यो ! (यः) जो (इमे) ये (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी (ब्रह्म) धन वा ब्रह्माण्ड (इदम्) इस वर्त्तमान (भारतम्) वाणी के जानने वा धारण करनेवाले उस (जनम्) प्रसिद्ध मनुष्य आदि प्राणि स्वरूप की (रक्षति) रक्षा करता है जिस (इन्द्रम्) परमात्मा की हम (अतुष्टवम्) प्रशंसा करें उस (विश्वामित्रस्य) सबके मित्र की ही उपासना आप लोग करें।

तस्मा अग्निर्भारतः शर्म यंसज्ज्योक्पश्यात्सूर्यमुच्चरन्तम्।
य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्याय नृतमाय नृणाम्॥
– ऋग्वेद ४/२५/४

हे मनुष्यों ! (यः) जो (अग्निः) अग्नि के सदृश वर्त्तमान (भारतः) धारण करनेवाले का यह धारण करनेवाला (शर्म्म) गृह के सदृश सुख को (यंसत्) प्राप्त होवे वह (उच्चरन्तम्) ऊपर को घूमते हुए (सूर्य्यम्) सूर्य्यमण्डल को (ज्योक्) निरन्तर (पश्यात्) देखे (तस्मै) उस (नृणाम्) विद्या और उत्तमशीलयुक्त मनुष्यों के (नृतमाय) अत्यन्त मुखिया (नरे) नायक (नर्य्याय) मनुष्यों में कुशल (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य्यवान् के लिये (इति) ऐसा (आह) कहता है, उसको हम लोग (सुनवाम) उत्पन्न करें।

आग्निरगामि भारतो वृत्रहा पुरुचेतनः।
दिवोदासस्य सत्पतिः॥
– ऋग्वेद ६/१६/१९

विद्वान् जनों ! जो (दिवोदासस्य) प्रकाश के देनेवाले का (भारतः) धारण करने वा पोषण करने और (वृत्रहा) मेघ को नाश करनेवाला (पुरुचेतनः) बहुत चेतन जिसमें वह (सत्पतिः) श्रेष्ठ स्वामी (अग्निः) अग्नि के सदृश तेजस्वी सूर्य्य (आ, अगामि) प्राप्त किया जाता है, उसका हम लोग सेवन करें।

उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत्।
शोचा वि भाह्यजर॥
– ऋग्वेद ६/१६/४५
हे (भारत) धारण करनेवाले (अजर) जरा दोष से रहित (अग्ने) विद्वन् ! आप (अजस्रेण) निरन्तर (द्युमत्) प्रकाशवाले को (दविद्युतत्) प्रकाशित करते हो, उसके लिये आप (उत्, शोचा) अत्यन्त प्रकाशित हूजिये और (वि, भाहि) विशेष करके प्रकाशित करिये।

उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत्।
शोचा वि भाह्यजर॥
– सामवेद – १३८५

१) आचार्य रामनाथ वेदालंकार –
हे (भारत) शरीर का भरण-पोषण करनेवाले, (अजर) अविनाशी (अग्ने) जीवात्मन् ! तुम (द्युमत्) शोभनीय रूप से (अजस्रेण) अविच्छिन्न तेज से (दविद्युतत्) अतिशय चमकते हुए (उत् शोच) उत्साहित होओ, (वि भाहि) विशेष यशस्वी होओ ॥

२) पं हरिशरण सिद्धान्तालंकार –
(अग्ने) = हे उन्नत करके मोक्षस्थान को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (भारत) = नित्य अभियुक्तों के योगक्षेम का भरण करनेवाले प्रभो! अथवा संसारमात्र के पोषक प्रभो! (द्युमत्) = ज्योतिर्मय प्रभो! (अजस्त्रेण दविद्युतत्) = निरन्तर प्रकाश फैलानेवाले प्रभो ! (अजर) – कभी भी जीर्ण न होवाले प्रभो!आप हमें भी इस संसार के प्रलोभनों से (उत्) = ऊपर उठाकर, बाहर [out] निकालकर (शोच) = पवित्र बनाइए और (विभाहि) = हमारे जीवनों को ज्योतिर्मय कर दीजिए।

हे प्रभो! आपका उपासक बनता हुआ मैं भी अग्नि- आगे बढ़नेवाला बनूँ, भारत -भरण करनेवाला नकि नाश करनेवाला होऊँ, द्युमत् – अपने जीवन को ज्योतिर्मय बनाने का उद्योग करूँ अजस्रेण दविद्युतत्- निरन्तर ज्योति का प्रसार करनेवाला होऊँ आपकी उपासना मुझे संसार के प्रलोभनों में फँसने से बचाए तथा मेरा जीवन आपकी ज्योति से ज्योतिर्मय हो उठे।

३) स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक –
(भारत-अजर-अग्ने) हे भरणकर्ता जरारहित—अमर परमात्मन्! तू (अजस्रेण द्युमत्) निरन्तर वर्तमान प्रकाश वाले तेज से (दविद्युतत्) प्रकाशित हुआ (उत्-शोच-विभाहि) उज्ज्वलित हो२ साक्षात् हो और हमें विभासित कर—तेजस्वी बना।

डॉ. जयकृष्ण शर्मा के फेसबुक वाल से

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